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बेटी / गौतम-तिरिया / मुचकुन्द शर्मा

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घर में बेटी के ऐला से फैलल सगर निराशा,
लगल कि जाड़ा के विहान में घिरलै सघन कुहासा
जनमल बेटी बाप-माय घर में हो रहल उदास,
ओला से पौधा जैसन झुलसल सब सत्यानास।
पर घर जाहे सबकुछ लेकेऽ ईहे सबके चिन्ता,
चुन्नी-मुन्नी, रजनीगंधा या कि सियानी विनता।
बेटा-बेटी हे समान पर बेटी सहे अनादर,
बेटा हे आशा-प्रदीप बेटी बिन वर्षा बादर।
बिके हे गौंढ़ा खेत गाँव के, विके हे अरती-परती,
बरतुहार के बैठे ले तैयो न मिले हे धरती।
सुरसा-सन मुँह फाड़ रहल हें तिलक दहेज के दानव,
कहलावे हे सभ्य, मगर बेटा बेचे हे मानव।
सबकुछ मांगे हे दहेज में, मांगे सुन्दर कनिया,
चान-सुरूज सन सुन्दर-सुत्थर हम्मर बेटी धनिया।
लड़का हे बकलोल मगर ओकरो कीमत हे लाख,
दौड़ रहल हें बाप न कोय रक्खे हे ओकरो साख,
ससुरालो में घर-घर में कन्या के हे उदवास,
कैसें रहतै, कैसें बचतै है फैलल संत्रास।
बेटी है सुगंध घर-बाहर बेटी जीवन-सरिता,
घर-परिवार आर दुनिया के दे है सगर अमरता।
बेटी लक्ष्मी, है सरस्वती बेटी जग कल्याणी,
बस विवाह के कारण सब कर रहल बड़ी मनमानी।
उठ बेटी चीरें अन्हार के बनके नया विहान,
संधानें विचार के धन्वा नवयुग के आह्वाण।