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माओ और चाऊ के नाम / महेन्द्र भटनागर

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तुम्हारी मुक्ति पर
हमने मनाया था महोत्सव —

क्या इसलिए ?

तुम्हारे मत्त विजयोल्लास पर
बेरोक उमड़ा था
यहाँ भी हर्ष का सागर —

क्या इसलिए ?

नये इन्सान के प्रतिरूप में हमने
तुम्हारा
बंधु-सम स्वागत किया था —

क्या इसलिए ?

कि तुम
अचानक क्रूर बर्बर आक्रमण कर
हेय आदिम हिंस्र पशुता का प्रदर्शन कर,
हमारी भूमि पर
निर्लज्ज इरादों से
गलित साम्राज्यवादी भावना से
इस तरह अधिकार कर लोगे ?
युग-युग पुरानी मित्रता को भूल
कटु विश्वासघाती बन
मनुजता का हृदय से अंत कर दोगे ?

तुम
आँसुओं के शाह बन कर
मृत्यु के उपहार लाओगे ?
पूरब से उदित होकर
अँधेरे का, धुएँ का
भर सघन विस्तार लाओगे ?
साम्यवादी वेष धर
सम्पूर्ण दक्षिण एशिया पर स्वत्व चाहोगे ?

इतिहास को —
तुमसे कभी ऐसी अपेक्षा थी नहीं
ऐसा करुण साहाय्य
तुम दोगे उसे !
नव साम्यवादी लोक को —
तुमसे कभी ऐसी अपेक्षा थी नहीं
ऐसा दुखद अध्याय
तुम दोगे उसे !

बदलो,
अभी भी है समय ;
अपनी नीतियाँ बदलो !

अभी भी है समय
पारस्परिक व्यवहार की
अपनी घिनौनी रीतियाँ बदलो !

अन्यथा;
संसार की जन-शक्ति
मिथ्या दर्प सारा तोड़ देगी !
आत्मघाती युद्ध के प्रेमी,
हठी !
बस लौट जाओ,
अन्यथा
मनु-सभ्यता
हिंसक तुम्हारा वार
तुम पर मोड़ देगी !