भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फटेहाल जि़न्दगी / राजेन्द्र वर्मा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:04, 21 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र वर्मा |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
नौ बजने को आये
साढ़े नौ की है ड्यूटी ।
आठ-दस मिनट बस अड्डे तक
लग ही जायेंगे
लगी हुई बस मिली अगर तो
ड्यूटी पायेंगे
छूट गयी बस कहीं अगर
तो ड्यूटी भी छूटी ।
पाँच मिनट की देर क्या हुई,
इंट्री बन्द हुई
गेटमैन के कानों में
नियमों की ठुसी रुई
रोज-रोज़ सच्चाई भी
लगती जैसे झूठी ।
ऑटो से जायें तो समझो
‘सौ’ की चोट हुई
दो दिन की सब्ज़ी-भाजी
आँखों से ओट हुई
फटेहाल जि़न्दगी टँगी
मजबूरी की खूँटी ।।