भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नज़र लग गयी / रविशंकर मिश्र
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:47, 21 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रविशंकर मिश्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
घायल है, चोट
किधर किधर लग गयी,
सोने की चिड़िया की
फिकर लग गयी।
हौसला गज़ब का था
गज़ब की उड़ान
एक किये रहती थी
धरा आसमान
बड़ी खूबसूरत थी
नज़र लग गयी।
गहन अँधेरों में जब
दुनिया घबराती
परों में उजाला भर
रास्ता दिखाती
तभी “विश्वगुरु” वाली
मुहर लग गयी
इतनी तकलीफ़ है कि
कही भी न जाये
बढ़ते ही आते हैं
नफ़रत के साये
प्यार बाँटने में जब
उमर लग गयी