भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माँ / रविशंकर मिश्र
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:53, 21 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रविशंकर मिश्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
पाठ ममता का
ज़माने को पढ़ा कर रह गयी माँ
पालने से गिरी बिटिया
छटपटाकर रह गयी माँ
बहन-बेटी-प्रेमिका-
पत्नी सदृश संबंध कितने
एक अल्हड़ सी किशोरी
में रहे व्यक्तित्व कितने
पर तिरोहित हो गये सब
शेष केवल रह गयी माँ।
खेलना छपकोरिया
नल खोलकर पानी गिराकर
फेंकना सामान सारा
आलमारी से उठाकर
सैकड़ों "बम्माछियों" पर
मुस्कुराकर रह गयी माँ।
रोज साड़ी और गहने
के लिये मनुहार छूटा
शौक छूटे और फ़ैशन
अन्त में श्रृंगार छूटा
लाडली के वास्ते खुद को
भुलाकर रह गयी माँ।