नई सदी के
नये गीत हैं
कहीं ताप हैं , कहीं शीत हैं
कुहरीले हैं कहीं
कहीं पर
मधुऋतु जैसे धूप-धुले हैं
रोशनदानों
और खिड़कियों
दरवाजों से खुले-खुले हैं
ऊँची-नीची
पगडण्डी पर
कहीं हार हैं , कहीं जीत हैं
देशकाल में
विचरण करते
संवेदन में ये प्रवीण हैं
ये किंकर हैं
ये ही शंकर
नित्य सनातन , चिर नवीन हैं
इनकी आन-बान
अपनी है
यें पंकिल हैं , पर पुनीत हैं
चट्टानों को
पिघलायेंगे
दलदल का पानी सोखेंगे
परती-ऊसर में
ये उगकर
धरती का श्रंगार करेंगे
ये कबीर हैं
ये कलाम हैं
अधुनातन हैं , शुभ अतीत हैं