Last modified on 21 जुलाई 2019, at 23:30

तुम बुला लो / राघवेन्द्र शुक्ल

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:30, 21 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राघवेन्द्र शुक्ल |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम बुला लो,
इससे पहले भूल जाऊं लौट आना।

यह नगर है, आप हैं, आपत्व खोया।
मृत्यु का उद्यान, है अमरत्व सोया।
देह के पथ पर चले अनुभूति का रथ,
एक मंदर ज्यों रहा हो ज़िन्दगी मथ।

धूल हूँ मैं,
जानता हूँ चित्र-स्मृति ढांप जाना।

मैं श्रवण की अन्य पद्धति जानता हूँ,
मौन के चेहरे कई पहचानता हूँ,
भर गया जीवन परात्मालाप से,
ब्रह्मांड भी कम आयतन, संताप से।

शूल हूँ मैं
फूल था, अब भूल बैठा मुस्कुराना।
तुम बुला लो,
इससे पहले भूल जाऊं लौट आना।

मन हुआ जाता हिमालय ही निरन्तर,
चेतना तालाब सी ठहरी हुई है।
दृष्टि का परिसर समाया जिस परिधि में
तीरगी उसमें सदा गहरी हुई है।

उर नहीं यह,
है अमावस- चंद्रमाओं का ठिकाना।
तुम बुला लो,
इससे पहले भूल जाऊं लौट आना।