भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

थक गया है दोपहर / राघवेन्द्र शुक्ल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:31, 21 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राघवेन्द्र शुक्ल |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रेत सा मन मिल गया है,
अभी तपता, अभी शीतल
अभी उड़कर बिखर जाए
अभी भर ले हृदय में जल।

पत्थरों सा अहंकारी
दिवा-निशि संतप्त तपकर।
लेख जो कुछ भी,अमिट,
है बैर गति से, शून्य शंकर।

तिमिर-सा निज नेत्रहीन,
अनुर्वर, चिर सुप्तप्राय।
शोर: श्रम से श्रांत सोया,
कल्पनाएं कृष्णकाय।

निर्झरी वाचालता है
अधोगामी नित पतन है।
दूब-सी उगती अभीप्सा
क्यारियों में नागफन है।

एक ठहरे नाव-सा
गतिशील सरिता के सहारे।
देखता कातर, किनारा
एक यात्रा-चित्र धारे।

मेघ-सी यायावरी है,
मेघ-सी ही है विवशता।
कंठ तक भरकर न छलके
मन की ऐसी है कलशता।

क्षण में ही नव बाग़ फूले
क्षण में ही पतझर पधारे,
क्षण में सावन झूमता हो
क्षण में तपता जेठ जारे।

भोर देखी, प्रात छूटा,
नींद टूटी, स्वप्न टूटा।
बह गया कितना मरुस्थल,
बह गईं कितनी हवाएं,
बह चुकी है राप्ती में
नीर की कितनी सदाएं।

अड़ गया क्या!
टल गई भू इस दिशा से उस दिशा तक
सूर्य का रथ टस न मस,
पर!

थक गया है, दोपहर।