भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चीख़ के पार / अनिल अनलहातु

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:10, 22 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिल अनलहातु |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम चीख़ोगे और चिल्लाओगे
कि इसके सिवा तुम
कर ही क्या सकते हो,
और कुछ कर भी सकते हो
तो बस इतना ही
अपने दोस्तों के बीच
गुस्सा सको
और अपनी कमज़ोरियों को
सिद्धान्तों और आदर्शों का
जामा पहनाओ;

कि यही वह जगह है
जहाँ लात मार देने से
तुम भुसभुसी दीवार की तरह
भहराकर गिर पड़ोगे
लेकिन आश्वस्त रहो
कि इस ख़तरे से
अभी तुम दूर हो
कि तुम्हें लात मारने वाले भी
तुम्हारी ही कमज़ोरी के शिकार हैं
कि तुम भी
उन्हीं बुद्धिमान जनखों के अन्तरराष्ट्रीय तबेले
के सदस्य हो ।

ऐसा हो सकता है
और है भी ऐसा
कि एक समय ऐसा आएगा
कि एकाएक तुम्हें
लगने लगे
कि वे तमाम चीज़े
जिनसे तुमने अपनी आस्थाओं
के ड्राइँग-रूम को सजाया था
अचानक ही आउट-डेटेड हो गई हैं
जो तमाम दूसरे घरों से कब का
उठाकर कूड़ेदानों में डाला जा चुका है,

हो सकता है तब
तुम फिर चीख़ोगे, चिल्लाओगे
और धूमिल के अनुसार
अपने ही घूसे पर गिर पड़ोगे ।