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अर्थ खोते जा रहे हैं / शीला पाण्डेय

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शब्द खोखे डुगडुगी हैं
अर्थ खोते जा रहे हैं

शौर्य की पनडुब्बियों को शेर खेते थे कभी
भट्टियों की धौंकनी में झोंक देते थे सभी
धू धू धधकता लौह तन-मन
उस त्वरा की चेतना पर
शर्म से बेशर्म लड़ते
भेड़ जोते जा रहे हैं

हुक्मरानों की मुनादी में भुनाते खास सारे
घर का दस्तावेज सारा बेंच आते मान सारे
घुड़सवारी पर है दूल्हे को
निकलना क्या करें सब
देश का जज्बात पहने
भाँड़ होते जा रहे हैं

सृष्टि के नायाब मोती घर रहे थे ईश के जो
बँट गए बाँटे गए कुछ वोटरों में बीस के वो
ताजपोशी के लिए सब
मारकर मानव गढ़े अब
तख्तियाँ हाथों में लेकर
भीड़ होते जा रहे हैं

शब्द खोखे डुगडुगी हैं
अर्थ खोते जा रहे हैं