दुश्मन बन बैठे हैं / लव कुमार 'प्रणय'
जब से विष पीने में हमने मन का साथ दिया है
कितने ही हमदर्द हमारे दुश्मन बन बैठे हैं
गीतों को स्वर दिये कि शायद कुछ संताप मिटेगा
नित्य गये गंगा तट पर यह सोच कि पाप कटेगा
पर जब से दुखियों के दुःख में हमने साथ दिया है
उनके दर्द छंद में ढलकर तड़पन बन बैठे हैं
कितने ही हमदर्द हमारे दुश्मन बन बैठे हैं
बंद कोठरी में जीवन की बुझे-बुझे रहते हैं
वैसे तो सब समझ गये हैं पर फिर भी कहते हैं
जब से छोड़ रोशनी हमने तम का साथ दिया है
अपने मन चाहे सपने ही उलझन बन बैठे हैं
कितने ही हमदर्द हमारे दुश्मन बन बैठे हैं
वाणी संत कबीरा की ये मत टालो कुछ कल पर
नाव खोल दी तूफानों में अपने ही भुजबल पर
पर जब से भावुक मन ने लहरों का साथ दिया है
पथ के ये पद-चिन्ह राह की भटकन बन बैठे हैं
कितने ही हमदर्द हमारे दुश्मन बन बैठे हैं