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सोनचिरैया / सुभाष राय

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जब से समझने लगा देश, जनता और विकास के अर्थ
पहचानने लगा दुश्मन और दोस्त के बीच का फ़र्क
जानने लगा अपने और देश के बीच का रिश्ता
तब से देख रहा हूँ पँख फड़फड़ा रही है सोनचिरैया

शायद वह उड़ान भरना चाहती है उन्मुक्त, अनन्त आकाश में
नापना चाहती है पृथ्वी और तारों के बीच की दूरी
सूर्य की ऊष्मा महसूसना चाहती है नज़दीक से

शायद बताना चाहती है कि हैं उसके पास ऊँची उड़ान के सपने
अपना सँकल्प तोल रही है पँखों पर उठने के पहले
उसे अपने लिए एक दरख़्त तलाशना है ऊँचा और सुरक्षित
ताकि वह रच सके अपना भविष्य, अपने होने का अर्थ
वह आज़ादी के मायने बताना चाहती है परों पर उठकर

शायद पँख फड़फड़ाने के लिए फड़फड़ा रही है पँख
भूल गई है उड़ना, कमज़ोर हो गए हैं उसके पँख
सपनों का वज़न उठाने में असमर्थ
अपनी ही फड़फड़ाहट से घायल

शायद उसकी चोंच में फँसी हुई है एक गहरी चीख़
यह फड़फड़ाहट मुक्ति के लिए चीत्कार है
हम सबको मदद के लिए बुला रही है
पँख फड़फड़ा रही है सोनचिरैया