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बोध की ठिठकन- 1 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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तुम्हारी परिचिति के शून्य में
मेरे बोध की ठिठकन
कुछ क्षण दीप जलाती है-

तुम्हारे पथ से गुजरना
बहुत कठिन नहीं
अपने आत्यंतिक आयाम में
बस ठहर जाना है-

मेरे अभिसरण से
तुम्हारी पगडंडी-हवाओं में
कोई खरोंच नहीं लगती
न मेरे होने के किसी फलक में
पीड़ा खुदती है-

मैं महसूसने लगा हू
जो कुछ भी आकुंचन चुभता है
वह
मेरे द्वारा बुनी गुई
मेरे मन की समाई की
फटन का चीत्कार है-

मेरी मनोनिर्मिति
किसी शिशु-नाभि की तरह
मेरी देह-घाटी में
कुछ इस कदर जुड़ी है
कि इसकी थोड़ी सी करवट
मेरे पोरों में
सृजन की पीड़ा उड़ेलती है-

मैं पूरी तरह चाहता हूँ
मेरा सृजन-शिशु
पहरों से अलग
किसी एकांत घाटी में
अपनी ऑखें खोले
क्योंकि तब
aअपने प्रसव को
मैं अपना अर्ध दे सकूँगा
मेरा प्रसव अर्थ ढूँढ़ सकेगा
तभी उसकी सृजनशीलता
अपनी आत्यंतिक संभावनाओं का
खोजी हो सकेगा-

मेरे सृजन पर पहरे हैं-

मौन की समृद्धि का अहसास
मुझे है
मगर पंक्ति
मुझे कुंठा पिलाने में सक्षम है-

अपने होने के संकटापन्न पलों से
अनभिव्यक्त चलना
कुछ ही कठिन है
मगर पंक्ति की पंक्तियों से गुजर कर
अकेले हो रहना
बहुत कठिन है-

जो भी प्रयास अभी तक
मैंने किए हैं
आमूल हिल गया हूँ

हॉ यह जरूर है
कि मैं अभी तक उखड़ा नहीं
मेरी स्थिति
डोरी के मध्य में
सॅभाल में लगे नट की तरह है