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बोध की ठिठकन- 19 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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कभी से मैं गुलाब की
इस अधखिली कली को
देख रहा हूँ
यह अभी भी
उतनी की उतनी ही खिली है
जितनी पहले देखे में थी.

लगता है
इसके प्राणों का उष्मल आवेग
जो अंतरिक्ष का आमंत्रण पाकर
ट्टी से रस निचोड़ता
उर्ध्वाधर बहकर
उस तक पहुँचता था
कहीं उसके कँटीले तन में
उलझ कर रह गया है,

क्या अंतरिक्ष के आह्वान से
असके परमाणु अपरिचित हो गए
जो उस कली की पंखुरियाँ
छितराने की उतसुकता
और उल्लास का संवेग
खो बैठी है.

अथवा मिट्टी से
जीवन-उर्जा लेने का द्वार
उसकी किसी विकृति ने
अवरुद्ध कर दिया है.

अथवा मिट्टी से अबाध जीवन-संचय
उसकी किसी ग्रंथि में उलझ कर
किसी विस्फोट की कोई भूमिका
तय कर रहा है.

अगर यह विस्फोट
किसी जीवन को प्रसव देगा
यदि वह कली हो तो विकृत होगी
यदि वह काँटा हो तो दुर्दांत होगा
जीवन-धारा का यह ठहराव
महसूसने
और अनुभव उतारने जैसा है-

सम्यक अनुभव से ही
गलाया जा सकता है.

इस कली का अल्प खिला रह जाना
किसी प्रसव के
ठहर जाने जैसा है
सृजन के क्षणों की यह पीड़ा
मैं बराबर झेल रहा हूँ.

यह कली
मेरे अस्तित्व के कितना निकट है
जभी मैं इस ठहरी खिलावट को
तन्मय हो देखता हूँ
मेरे पोरों में ठहरी खिलावट
उससे तादात्म्य कर बैठती है
कुछ तुम्हीं करो मेरे मित्र
इस अवरुद्ध खिलावट की चुभन
बड़ी पीड़क है