बोध की ठिठकन- 20 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
जिन सच्चाईयों में
मैं आकंठ डूबा हूँ
तुम्हारी निकटता पाने को
उन्हीं से भाग रहा हूँ.
मैंने एकांत भी पैदा किया
उसकी प्रतीतियाँ झेली भी
मगर तुम्हारी भीत
मैं टटोल न सका.
उस पथिक के उद्बोधन से
अपने गिर्द की सच्चाईयों में
जब मेरी आँखें खुलीं
मैंने पाया
तुम तक जाने वाले रास्ते
रोटी से होकर ही
गुजरते हैं
जब रोटी का ठोसपन घुलता है
मेरे पोरों की संवेदना
पुष्ट होती है.
मेरे अनुभव में
बला का यह सत्य उघड़ता है
कि रोटी को लहू बनाने की कला
बस तुम्हें ही आती है.
धरती का ठोसपन
जब फूलों की खिलावट में
मुस्कराता है
तो दरअसल उसमें
बहुत सी बातें आहरित होती हैं—
अंतरिक्ष की पुकार
उनके प्रणों में पुलक जगाती है
मिट्टी का संवेग
उसके रूप में थिरकने लगता है
प्रकृति थिरक कर
उसके रूप को सँवारती है
मगर इस फूल को
विनिमय की कलानहीं आती
धरती फूल का ग्राहक नहीं होती
बस उसके सौंदर्य को
मौन पी लेती है.
मगर मेरे होने में
फूल के सारे आहरण होने बावजूद
विनिमय भी जुड़ता है
ग्राहकता भी जुड़ती है
संशय और संभावना की
अपार क्षमताएँ भी जुड़ती हैं.
रोटी का ठोसपन
जब मेरे होनें में घुलता है
तो यह सब भी अनायास
मेरे अस्तित्व की परिधि बन जाते हैं
परिवेश के बोध, अहसास
तमाम कुंठाएँ, संत्रास
कँटीले तनावोंकी चुभन
मेरे होने का हिस्सा हो जाते हैं.
इनसे बचने के लिए
मैं रोटी खाना नहीं छोड़ सकता
हाँ, रोटी के साथजुड़ी
भूख की मूर्छा के प्रति मैं जाग सकता हूँ
इस गागने का भी
अपना अनूठा स्वाद है.
रोटी के थ तिर कर
मुझमें जुड़ने वाले सारे रिसाव
अब मेरी निर्वेद स्वीकृति है.
रोटी की सच्चाईयों में डूब कर
मैं अतिक्रमण का मार्ग ढूढ़ूँगा
क्योंकि ये द्वार आंगन के पार नहीं
आंगन में ही खुलते हैं