भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झील / ऋषभ देव शर्मा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:41, 29 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा |अनुवादक= |संग्रह=प्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम झील हो ....
जितनी शांत,
उतनी ही गहरी !

हवा छेड़ती है तुम्हें;
कपकापती है सतह
और शांत हो जाती है ।

पर कंपन की प्रतिध्वनियाँ
उतरती चली जाती हैं
तुम्हारे तल में
भीतर और भीतर !

और तुम
सुला देती हो
हवा की हर छुअन को
अपने अचेतन में ।

तुम झील हो ...
जितनी गहरी ,
उतनी शांत !