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झील / ऋषभ देव शर्मा
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तुम झील हो ....
जितनी शांत,
उतनी ही गहरी !
हवा छेड़ती है तुम्हें;
कपकापती है सतह
और शांत हो जाती है ।
पर कंपन की प्रतिध्वनियाँ
उतरती चली जाती हैं
तुम्हारे तल में
भीतर और भीतर !
और तुम
सुला देती हो
हवा की हर छुअन को
अपने अचेतन में ।
तुम झील हो ...
जितनी गहरी ,
उतनी शांत !