गोबर की छाप / ऋषभ देव शर्मा

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तुमसे से भागकर, राधा,
जिस दिन से शहर आया हूँ,
रो रहा हूँ
मटमैली कमीज़ को
रोज़-
एलकोहल से,पैट्रोल।

गाँव की सौंधी गंध तो
कभी की जाती रही
लेकिन
गोबर सनी हथेली की
इस छाप का क्या करूँ
जिसका रंग
पीठ पर
दिन दिन गहराता जाता है!

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