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तृप्ति की अप्सरा / ऋषभ देव शर्मा
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प्राण के पात्र में
जन्म से छिद्र हैं
अब कहाँ बालिके !
नेह तेरा धरूँ?
इस शिला नेत्र में रक्त रेखा नहीं
वंचना में जिया,प्यार देखा नहीं
मन संशकित मुआ
तन कलंकित हुआ
चाह कैसे करूँ?
बाँह कैसे भरूँ?
सप्त स्वर स्वप्न के जल गए धूप में
इंद्रधनु सप्त्वर्णी गिरे कूप में
जब खनक ही नहीं
शेष रानी ! रही
हाय ! कैसे बनूँ
पाँव का घुंघरू?
हाथ पर लिख दिया भाग्य ने “वर्जना”
माथ पर लिख दिया “चिर तृषित “वासना”
तृप्ति की अप्सरा !
दूर रहना जरा
प्यास रहना जरा
प्यास पीकर जिया
प्यास लेकर मरूँ !!