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शान्ति प्रक्रिया / महाराज कृष्ण सन्तोषी
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उन्होंने हत्याएँ की
पर हत्यारे नहीं कहलाए
कभी-कभी इतिहास
हत्यारों का मान कितना बढ़ा देता है
वे, जिनसे जंगल की हरियाली
और नदी का जल काँप उठते हैं
वे ही आज अपने
सफ़ेद कबूतरों के साथ
पहाड़ से उतर आए हैं
अपने इन कबूतरों के गले में
उन्होंने पहना रखे हैं
हरे रँग के ताबीज़
ताबीज़ों मे एक-एक सपना है उनका
ख़ुदा द्वारा हस्ताक्षरित
कभी वे ले आते हैं सफ़ेद कबूतरों को
अपनी हथेली पर
और कभी उन्हें बन्दूकों के पीछे
छिपा लेते हैं
मैं जब भी देखता हूँ
इन सफ़ेद कबूतरों को
तो डर जाता हूँ
कैसे न डरूँ
वे दूर दिखें या पास
लहू के छींटे
मेरे ही लिबास पर गिरा देते हैं ।