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दुख का साथ / सविता सिंह

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मैंने मान लिया है
हमारे आस-पास हमेशा दुख रहा करेंगे
और कहते रहेंगे
‘ख़ुशियाँ अभी आने वाली हैं
वे सहेलियाँ हैं
रास्ते में कहीं रुक गई होंगी
गपशप में मशगूल हो गयी होंगीं’
वैसे मैंने कब असंख्य ख़ुशियाँ चाहीं थीं
मेरे लिए तो यही एक ख़ुशी थी
कि हम शाम ठण्डी हवा के मध्य
उन फूलों को देखते
जो इस बात से प्रसन्न होते
कि उन्हें देखने के लिए
उत्सुक आँखे बची हुई हैं इस पृथ्वी पर
मेरे लिए दुख का साथ
कभी उबाऊ न लगा
वे बहुत दीन-हीन ख़ुद लगे
उन्हें सँवारने की अनेक कोशिशें मैंने कीं
मगर वे मेरा ही चेहरा बिगाड़ने में लगे रहे

मेरा चेहरा किसी फूल-सा हो सकता था
खिली धूप में चमकता हुआ !