तुमको संबोधित कर कितने ही गीत लिखे,
फूलों में, ऊषा में, कन-कन में छवि देखी,
हर समय तुम्हारे ही स्वप्नों में पागल हो
डूबा-उतराया, कभी नहीं विश्राम लिया।
बेसुध होकर मैं इधर-उधर भूला-भटका,
बदनाम हुआ जब गीत प्यार के दुहरा्ये,
लेकिन सोते या जगते सिर्फ़ तुम्हारा ही
चिन्तन मेरे सारे जीवन का प्राण बना ।
फिर एक दिवस आया जब यह मालूम हुआ
'तुम' तो कोई भी नहीं, कहीं भी नहीं रहीं,
'तुम' तो थीं केवल शून्य, मात्र मृग-छलना थीं :
वह वस्तु कि जिसका कहीं, कभी अस्तित्व न था ।
यह जान पड़ा : 'तुमको' तो मैंने इसीलिए
सिरजा था, जिससे एक सहारा पास रहे,
बस उसी तरह जैसे अंधियारे में डरते
बच्चे के मन का भाव कि 'मुन्नी पास खड़ी।'
इसलिए आज स्वीकार किए लेता हूँ मैं :
ओ दुनिया, तुझको झूठ बताया था मैंने ।
जिसको 'तुम' कहकर संबोधित था किया सदा
वह तो केवल मेरे मन की अभिलाषा थी ।