भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नेह बगीचा / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:19, 6 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बृजनाथ श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चूक न हो अब
सब जन मिलकर
नया बगीचा रोपें

सूखे पेड़ों को काटें
और झाड़ियाँ भी जड़ से
निर्मूलित करें बबूलों को
खड़े हुए जो धड़ से

बनें इंद्रजित
डरें नहीं अब
वे कितना भी कोपें

सब कुछ आच्छादित करती
उस अमरबेल को छाँटें
सगुन परिंदों की टोली को
नई बहारें बाँटें

हम नकार दें
सभी जहर वे
गये कभी जो थोपे

पीपल,बरगद और नीम को
फिर रोपें सुखी रहें
मलय पवन के झोंके आयें
कलियाँ भी सुखी रहें

समरसता का
नेह बगीचा
नया-नया फिर रोपें