भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिज्ञासु की कथा / अजित कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:58, 15 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजित कुमार |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार }} पू...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूछताछ के दफ़्तर में

हम गए ।


वहाँ था काम यही
जो आए, पा जाए हरदम सूचना सही ।
हमने जो पूछा- सब जाना,
जो जाना उसको सच माना :


ऐसा सच-

जो व्यापित हो कल्पों में, युग में, संवत्सर में ।

हाँ, पूछताछ के दफ़्तर में

हम गए ।


हम जान गये- गाड़ी आती है सात बजे,
नौ... दस...ग्यारह बज गए
मगर गाड़ी का पता नहीं पाया ,
हम मान गए-- दो-दो मिल चार बनाएंगे,
अरसे तक करते रहे
किन्तु, हमको वह प्रश्न नहीं आया :

अस्पष्ट भाव कुछ

व्यक्त किए हमने अपने कुंठित स्वर में ।

जब पूछताछ के दफ़्तर में ।

हम गए ।


गए थे, वापस भी आए,

पूछते हो-- 'क्या-क्या लाए ?'

अरे, लाए क्या- बस, अनुभव,

और भी जिज्ञासाएँ नव,

कि जिनके समाधान सब भ्रान्त,

सभी कुछ मिथ्या से आक्रान्त ,

प्रश्न अनगिनती, उत्तर एक ,

और अपने मन की यह टेक :

भला होता

जो रहते अपने ही घर में ।


आह । क्यों ? पूछताछ के दफ़्तर में हम गए ?