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कार-ए-बेहूदा / शहराम सर्मदी

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अपने होने
और न होने में
ख़ुशी की ग़म की इत्मीनान की तहक़ीक़
बे-मसरफ़ है
और इक सई-ए-ला-हासिल के सिवा कुछ भी नहीं

ये ज़िन्दगी
इक जंग-ए-तहमीली है
और मैं
बे-नतीजा जंग का सर-बाज़ हों कोई
जो बेहूदा सवालों से
अज़ल से बर-सर-ए-पैकार
अबद-आसार ना-पैदा
माइल
तार-ए-अबरेशम
वजूद
इक किर्म की मानिन्द
ग़ाएब हो रहा है दम-ब-दम

ये भी ग़नीमत था मगर
रेशम के ख़्वाहाँ ही कहाँ बाक़ी
कभी ये सोचता हूँ मैं
किसी गोशे में बैठूँ
और रुजूअ' इक मर्द-ए-कामिल से करूँ

लेकिन
मुझे भी तो ये पहले जानना होगा
तिफ़्ल-ए-अक़्ल
क्यूँ अज़-बल्ख़ ता-ब-क़ौनिया
यूँ ख़्वाब में डूबा रहा

या फिर
इसी एक याद को उनवान दे दूँ ज़ीस्त का
तो नौ-दमीदा वो कली
शामिल हुई या की गई
जो ज़िन्दगी में
जिस की ख़ुश्बू ने मिरे घर को महक से भर दिया
तूती-ए-ख़ुश-रंग-ओ-इल्हाँ की चहक से भर दिया

मैं इक मुहक़क़िक़ भी रहा हूँ
हफ़्त-साला दौरा-ए-तहक़ीक़ का
हासिल यही है
सर-ब-ज़ानू दम-ब-ख़ुद हूँ
आख़िरश सादिक़-हिदायत
ख़ुद-कुशी से चाहता क्या था

नतीजा सिफ़्र है
ये कार-ए-बेहूदा
यूँही होता रहा है
बे-सबब होता रहेगा