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वर्षा ऋतु / कन्हैयालाल मत्त
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काग़ज़ की नाव चली
नगर-नगर, डगर-डगर !
सपनों की झील बनी
बरसाती पानी में
एक गीत और जुड़ा
मौसमी कहानी में
परियों के श्वेत पँख
साहस से फूल गए
आशा की डोरी पर
छन्द नए झूल गए
मस्तूलों को उभार
पाल हुए जगर-मगर !
आए कुछ व्यापारी
सुख-दुख का ले लदान
आंखों में डूब गई
मनुहारों की थकान
केवट की लाचारी
मोल-तोल भाँप गई
अनुभव की वैतरणी
सागर को माप गई
कूलों पर ठिठक रहे
अनबूझे 'अगर'-'मगर' !