Last modified on 8 अगस्त 2019, at 22:55

स्वाभिमान के सम्मुख मेरे / संदीप ‘सरस’

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:55, 8 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संदीप ‘सरस’ |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

स्वाभिमान के सम्मुख मेरे,
कुछ अनुदानों का क्या होगा?

हमने अपने मन की प्रियता
पर प्रतिबंध नहीं स्वीकारा।
हमने अंकगणित की शर्तों
पर सम्बन्ध नहीं स्वीकारा।

बंध्या यदि हो गई आस्था,
तो सम्मानों का क्या होगा?

पगडण्डी में कभी न उलझा,
मुख्य मार्ग की अगवानी की।
हमने तो जीवन भर अपने,
संघर्षों की जजमानी की।

लक्ष्य सरलता से मिल जाए,
फिर व्यवधानों का क्या होगा?

अंतस की अनुभूति गहन हो,
तो अभिव्यक्ति मुखर होती है।
भावों की भट्ठी में तपकर,
संवेदना प्रखर होती है।

बिना सृजन इस आतुर मन के,
अनुसंधानो का क्या होगा?