भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भीगी पलकें / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:10, 14 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
किसने देखे
नयन छल-छल,
भीगी पलकें
आकर पोंछे कौन
सब हैं मौन,
तुम तो सबके थे
कौन तुम्हारा ?
हिम जैसे पिंघले
क्या कुछ पाया ?
सब कुछ गँवाया
क्या पछताना
दुःख क्यों दोहराना
चलते जाना
दुर्गम घाटियों में
कोई रोया कि
पंछी हुए व्याकुल
हूक चीरती
घने चीड़ वन को
तप्त मन को
एक बार फिर से
खोल हथेली
पोंछों वे गीली आँखें
विवश हुई-
हिचकी भर भर
जो यादकर रोई।