भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रुग्ण आँखों का दर्शन / दिनेश्वर प्रसाद

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:11, 24 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश्वर प्रसाद |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोपहर में भी गोधूलिः सूरज को हो क्या गया है ?
वह काँपता हुआ, भोर के चान्द-सा मलिन है ।
यहाँ-वहाँ अनचीन्हे धब्बे हैं ।
पेड़ की डालियों और फुनगियों पर
धुन्ध की गिलहरियाँ दौड़ रही हैं
और कँगारू पहाड़ की पीठ पर
एक काँपता हुआ बादल थिर होना चाहता है ।
यह कोलतारी सड़क
किसी मय शिल्पी की रचना-सी
जहाँ नीची वहाँ ऊँची
जहाँ ऊँची वहाँ नीची दीखती
                            मेरे पैरों को छलती
उस मील पत्थर से सौ क़दमों बाद
बुझते आलोक की खाई में
अचानक
लुढ़क गई है ।