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तभी होगी सम्भव फिर कविता / दिनेश्वर प्रसाद

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एक पुरानी प्रार्थना की तरह
उनके शब्दों की आग बुझ गई है
अब नए शब्द खोजो
समुद्र की गहराइयों, पाताल के
अन्धेरे में
पिछली सदियों में सोए हुए
किसी अश्विन् किसी प्राचेतस किसी दध्यँक की
भाषा में,
चाहे जहॉँ भी मिलें वे प्रेरक शब्द

सामने से हर दिन गुज़रने वाले
रोते-बिसूरते हंसते-चिढ़ते
सिर उठा कर पीछे-आगे देखते-सोचते
लोगों की भाषा को
कविता बनाते समय सोचो कि शब्द
किसी पुरानी प्रार्थना की तरह
सिर्फ उच्चरित हो कर न रह जाएँ

खोजो उनमें दीप्ति कहाँ है खोजो
कहाँ है प्राणधारा में नहला कर
मृत्यु की काई धो देने वाला
वैद्युदिक निर्झर उनमें,
धीमी आँच में पककर

विस्फोटक हो गया, वह विवेक
मानव की नियति की उलझनें
रखकर उनको सुलझा दे, वह प्रज्ञा
कहाँ कैसे जाग उठी है आज
नया इतिहास बनाने को आतुर

यदि यह सब कर सको
लोक की उबलती हुई निजता को
निज की निजता में भर सको
तभी, तभी हो सकेगी
सम्भव फिर कविता

(14 जनवरी 1986)