भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:59, 3 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार मुकुल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं
गोडसेउआ के बाबा बोलीं
मजलूमन प धावा बोलीं
जाती-धरम के रट्टा मारीं
गाँधी के बिसराईं
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं
नेह-परेम के फंदा दे दीं
पर्टिअन के कुछो चंदा दे दीं
देशभगति के बीन बाजत बा
चली के कमर हिलाईं
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं
आजू-बाजू गुर्गा पालीं
दिखे सुफेदी कीच उछालीं
बांट-बखेरा हर दर पालीं
ज्ञानी बन उलझाईं
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं