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तसवीरें / महेन्द्र भटनागर

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दूर कहीं पर
सामूहिक गर्जन-स्वर का
मेरे नभ की उन्मुक्त-तरंगों में कंपन !
सुबह-सुबह महसूस हुआ ऐसा
कुछ बदल गयी है दिल की धड़कन !

शायद फिर मौसम बदला है,
बर्फ़ हिमालय का पिघला है !

आज तभी तो
गंगा-यमुना की धाराएँ अँगड़ाईं !
चट्टानों को तोड़ रहीं
जाने कितना अंतर में जीवन भर लायीं !

पूरब के स्वाधीन समुद्रों में अब
डोल उठे अरमान नये,
तूफ़ान नये !
जिनके बारे में सुन तो रक्खा था
पर, वे इस धरती को
छूते देखे नहीं गये।

आज सुबह के आसमान में
आभास उन्हीं का पाया,
मानों सत्य खड़ा हो सम्मुख
छिन्न-भिन्न करके माया !
हलके-हलके कुछ बादल छाये थे
जिनमें मैंने देखे चित्रा अनेकों —
जैसे कोई सरमाया का भूत
नये इंसानों के क़दमों के नीचे
दम तोड़ रहा है !
मैंने देखा जैसे कोई
भूखों, नंगों, पददलितों को
नंदन वन में छोड़ रहा है !
मैंने देखा जैसे कोई
पंक्ति कपोतों की
ख़ुश-ख़बर सुनाने आयी है !
मैंने देखा जैसे कोई
गेहूँ की बालें बिखर-बिखर कर छायी हैं !

इन चित्रों ने मुझको दृढ़ विश्वास दिया है,
जीवन-संघर्षों में अभिनव उल्लास दिया है,
श्रमजीवी जनता की
ताक़त का आभास दिया है !
आज वही तसवीरें
नभ पर प्रतिबिम्बत हैं !

आज वही तसवीरें
जन-जन के मन पर अंकित हैं !
आज उन्हीं तसवीरों को
धरती रखने को लालायित है !