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मज़लूम / महेन्द्र भटनागर
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सारे जग का सोया जन-सागर
जब अभिनव स्वर सुनकर उठा सिहर,
- सबने समझा —
- कहीं गिरी है ध्वंसक गाज
पर, वह तो गरजी थी मज़लूमों की आवाज़ !
शोषक-दुर्गों को दृढ़ दीवारें
तड़कीं केवल कंपन के मारे,
- सबने समझा —
- भूडोल उठा है दुर्दम
पर, वे तो थे मज़लूमों के कुछ कूच-क़दम !