गीत 3 / प्रशान्त मिश्रा 'मन'
कह रही थी धरा कल अरे ओ गगन!
प्रेम तेरा मुझे क्यों दिखावा लगे।
तू क्षितिज पर मुझे ही सँजोता रहा।
दूर से देह मेरी भिगोता रहा।
और मिलना उभय का न संभव हुआ
मैं भी रोती रही तू भी रोता रहा।
प्रेम है या नहीं बोल दे ओ सजन
कह रही थी धरा कल अरे ओ गगन!
प्रेम तेरा मुझे क्यों दिखावा लगे।
पास जब-तब मुझे तू बुलाता रहा।
स्वप्न बनकर मुझे फिर सताता रहा।
तू भी मजबूर था मैं भी मजबूर थी
नीलवर्णी! मुझे क्यों लुभाता रहा।
बोल तूने छुआ क्यों मेरा मुक्त मन!
कह रही थी धरा कल अरे ओ गगन!
प्रेम तेरा मुझे क्यों दिखावा लगे।
क्रोध या प्रेम में साँवला हो गया।
तू मुझे देख कर बावला हो गया।
मेघ! किस प्रेम की वेदना सह रहा
क्यों मेरे मन का तू लाडला हो गया।
किस तरह मैं करूँ बोल तेरा जतन
कह रही थी धरा कल अरे ओ गगन!
प्रेम तेरा मुझे क्यों दिखावा लगे।