Last modified on 5 सितम्बर 2019, at 16:13

गीत 12 / प्रशान्त मिश्रा 'मन'

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:13, 5 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रशान्त मिश्रा 'मन' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

डसता है री! मौन तुम्हारा
संभव हो तो अब कुछ बोलो।
कह दो अपनी पीड़ा पगली
क्या हैं मन में भरे तुम्हारे।
घुट-घुट कर जीते रहने से
बस टूटेंगे स्वप्न हमारे।
अतः निवेदन है ये मेरा संभव हो तो कह लो मन की-
और गोद में सिर रख कर तुम मुझे पकड़ कर खुल के रो लो।
डसता है री! मौन तुम्हारा...
अर्थ बदल जाएंगे सारे
प्राण! तुम्हारे चुप रहने से।
भीतर-भीतर मैं रोऊंगा
होंगे अगणित टुकड़े मन के।
अरी! तुम्हारा चुप रहना ही इक दिन मेरे प्राण हरेगा
ऐसा हो इस से पहले तुम आओ मन की पीर टटोलो।
डसता है री! मौन तुम्हारा...
क्या है क्यों है कैसा है यह
यह सब बातें हैं चिंतन की।
इस दुनिया की मत सोचो तुम
तुम बस सोचो अपने मन की।
अब तक शायद सोईं थी तुम इसलिए अब मेरी मानों
अपनी पीड़ा लिख-लिख गाओ जागो अपनी आँखें खोलो।
डसता है री! मौन तुम्हारा...