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अचरज / जय गोस्वामी / रामशंकर द्विवेदी

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कितना अचरज
घटता चला गया इस जीवन में !

वे सभी, सब लोग, जन सभी
कतार बान्धे खड़े हुए हैं
पहाड़ के वन में

दूसरी ओर तुम आ गई
टीले पर बैठी हुई हो।

देख रहा हूँ
चकित हैं मेरे प्राण
अब भी जीवन कहने को
जो कुछ बाकी है, उसका

सामान्य - सा सबकुछ
बिना कातर हुए
ढाल देना चाहता है
तुम्हारे सामने
इस समाप्तप्राय उम्र में

मूल बाँगला भाषा से अनुवाद : रामशंकर द्विवेदी