भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह नदी में नहा रही है / कुमारेंद्र पारसनाथ
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:57, 8 सितम्बर 2019 का अवतरण
वह नदी में नहा रही है
नदी धूप में
और धूप उसके जवान अँगों की मुस्कान मे
चमक रही है।
मेरे सामने
एक परिचित ख़ुशबू
कविता की भरी देह में खड़ी है
धरती यहाँ बिल्कुल अलक्षित है —
अन्तरिक्ष की सुगबुगाहट में
उसकी आहट सुनी जा सकती है ।
आसमान का नीला विस्तार
और आत्मीय हो गया है ।
शब्द
अर्थ में ढलने लगे हैं ।
और नदी
उसकी आँखों में अपना रूप देख रही है ।
आसमान के भास्वर स्वर उसके कानों का छूते हैं,
और वह गुनगुना उठती है ।
उसके अन्दर का गीत
[एक नन्हा पौधा]
सूरज की ओर बाँहे उठाए लगातार बढता जा रहा है ।