भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नि:शब्द रहूँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:41, 9 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
226
ज्ञान का दीप
अहर्निश जले तो
अँधेरा मिटे।
227
जीवन-संझा
आपका ये मिलना
खुशबू फैली ।
228
तृप्त हो गई
झुलसी हुई सांसें
शीतल मन
229
हारना नहीं
हम घायल योद्धा
कुरुक्षेत्र के ।
230
जो भी ठानेगे
करके ही मानेंगे
आपसे सीखा ।
231
लोग जलेंगे
मिलके जो चलेंगे
हम दोनों ही ।
232
सर पे धूप
पग में चुभे काँटे
हम न रुके ।
233
कुछ न छीना
कभी किसी का यहाँ
दुःख के सिवा ।
234
हाथ बढ़ाया
देने को सहारा ही
घाव ही खाया ।
235
आएँ बाधाएँ
सगे तक रुलाएँ
हार न मानें।
236
बीहड़ वन
हिंस्र जीवो से घिरा
यही जीवन ।
237
स्वर्णिम धरा
कण -कण सुवास
भारतमाता !
238
बैरागी मन
कहीं चैन न पाए
यूँ भरमाए।
239
पथ के काँटे
फूल बनके खिलें
अपने मिलें ।
240
नि:शब्द रहूँ
सुनके मधु वाणी
बोलो क्या कहूँ !