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सदियों बाद / महेन्द्र भटनागर
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सदियों बाद हिले हैं थर-थर
सामंती-युग के लौह-महल,
जनबल का उगता बीज नवल;
धक्के भूकम्पी क्रुद्ध सबल !
सदियों बाद मिटा तम का नभ,
चमका नव संसृति में प्रभात,
बीती युग-युग की मृत्यु रात,
डोला मधु-पूरित मलय वात !
सदियों बाद उठी है आँधी
कर आज दिशाएँ मटमैली,
धूल क्षितिज पर अहरह फैली;
शक्ति-विरोधी पंगु अकेली !
सदियों बाद हँसी है जनता
करने नवयुग की अगवानी;
जीवन की अभिरुचि पहचानी,
दफ़नाने को अश्रु-कहानी !
सदियों बाद जगा है मानव
अधिकारों की आवाज़ लगी,
सुन जग की जनता आज जगी
दुख, दैन्य, निराशा भगी-भगी !