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जीत के पल / भावना तिवारी

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हम अभावों की धरा पर
वैभवी सपने सँजोकर
कर्मपथ पर चल पड़े हैं
मुट्ठियों में क़ैद करने जीत के पल।

पंक-तट आवास अपना
सोचते हैं घर कहीं हो
भोगते दुर्गन्ध फिर भी
चाहते मधुपुर कहीं हो

चाहना की इस त्वरा में
स्वेद की बूँदें घँघोकर
शूलपथ पर चल पड़े हैं
मुट्ठियों में क़ैद करने शीत के पल

गुदड़ियों में जी रहे हैं
टाट के पैबंद लेकर
हर घड़ी मर-मर जिए हैं
चंद बँधुआ साँस लेकर

 आस का चूल्हा जलाकर
 झोंकते हैं आज अपना
 नियतिपथ पर चल पड़े हैं
 मुट्ठियों में क़ैद करने प्रीत के पल

साँस खुलकर ले सकें हम
है कहाँ अधिकार इतना
तृप्ति मिलती, पेट भरता,
है नहीं व्यापार इतना

चेतना अपनी जगाकर
भाग्य को आँखें दिखाकर
दीप्तपथ पर चल पड़े हैं
मुट्ठियों में क़ैद करने गीत के पल