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पोसीदोनियाई / कंस्तांतिन कवाफ़ी / सुरेश सलिल

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पोसीदोनियाई भूल गए यूनानी भाषा
कई सदियों टायरीनों, लैटिनों तथा
अन्य विदेशियों में रले-मिले रहने के बाद ।

एक ही चीज़ बची रही पूर्वजों से मिली हुई —
एक यूनानी त्योहार, सुन्दर अनुष्ठानों वाला
वीणावादन, बाँसुरीवादन, प्रतिस्पर्धाओं, फूलमालाओं वाला ।

त्योहार के समापन की ओर बढ़ते हुए
उनकी आदत थी एक दूसरे को
अपने प्राचीन रीति-रिवाओं के बारे में बताना
और एक बार फिर यूनानी नामों का उच्चारण करना
जिन्हें अब उनमें से कोई मुश्किल से ही पहचान पाता ।

इस तरह हरदम उनका त्योहार उदासी के साथ समाप्त होता
क्योंकि उन्हें याद आता वे भी यूनानी थे
वे भी कभी महान यूनान के नागरिक थे ।

किन्तु अब कितने गिरे हुए
कितने बदले हुए
बर्बरों की भाँति रहते और बोलते हुए
कितने अनर्थकारी रूप में
यूनानी रस्म-ओ-रिवाज से कटे हुए ।

[1906]

एक यूनानी कालोनी के रूप में सीरिया में पोसीदोनिया की नींव 600 ई०पू० के आसपास पड़ी । कविता में जिस रस्म का उल्लेख हुआ है उसका समय चौथी सदी ई०पू० का अन्तिम दौर होना चाहिए । 390 ई०पू० के आसपास उस पर इतर राजवंश का नियन्त्रण हो गया, जो 273 ई०पू० तक रहा । उसके बाद उसका रोमन नाम ‘पाइस्तुम’ हो गया, जो आधुनिक सलेर्नो नगर के निकट है और ‘अलमीना’ के रूप में जाना जाता है । यह कविता कवि के जीवन में अप्रकाशित रही ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल