एक बूढ़ा आदमी / कंस्तांतिन कवाफ़ी
कहवाघर के शोर में डूबे सिरे पर
मेज़ पर सिर रखे बैठा है अकेला / एक बूढ़ा आदमी ।
सामने पड़ा है उसके एक अख़बार ।
और बुढ़ापे के तकलीफ़देह-उपेक्षित दौर में
डूबा है वह इस सोच में
कि कितनी कम क़द्र की उसने अपनी जवानी की ।
पता है उसे कि अब वह बहुत बूढ़ा हो चुका है ।
देखता है । महसूस करता है । तब भी उसे लगता है
अभी कल तक तो मैं जवान था । कितनी जल्दी
खिसक गया वक़्त, कितनी जल्दी ।
और सोचता है वह कि कैसा मैं छला गया
अपनी ही समझ के हाथों, कैसा जड़मति मैं,
यक़ीन करता रहा उस ठगिनी के कहे पर
कि ‘कल तुम्हारे पास वक़्त ही वक़्त होगा ।’
याद करता है वह उन आवेगों को —
जिन पर लगाम कसी,
उन ख़ुशियों को
जिनकी कु़र्बानी दी । जो-जो मौक़े गवाँए उसने
हँसी उड़ाते हैं वे अब / उसकी समझ से परे की समझ का ।
किन्तु बहुत ज़्यादा सोचना, यादों पर बहुत ज़्यादा ज़ोर डालना
उस बूढ़े आदमी को थका गया बेतरह,
अब वह कहवाघर की मेज पर सिर रखे
सोया हुआ है ।
[1897]
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल