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मुद्रा / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे
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रात की काली रेत में
मुझे सुनाई देती है
समुद्र की इन्द्रधनु मुद्रा ।
अन्धकार का दृढ़ आलिंगन
मुझे तुमसे दूर-दूर ले जाता है ।
और मैं अपने ही साथ
एकदम अकेला हो जाता हूँ ।
दूज के चान्द की नाव में सवार
मैं निकल पड़ता हूँ
किसी अनजानी दिशा की ओर ।
केले के पत्ते-सी मखमली हवा को चीरने
एक पेड़
सुख से अधीर हो उठा है ।
सृष्टि का यह शयनकक्ष
ओस के दर्पण
निर्वसन पवन और पेड़
और रात
और समुद्र की इन्द्रधनु मुद्रा ।
मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे