भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कविता - 17 / योगेश शर्मा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:39, 7 अक्टूबर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेश शर्मा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तुझमें दो किस्म की गहराई थी
एक तो थी तेरे शरीर की
और एक तेरी।
एक सीमित थी एक असीमित।
जो सीमित थी उसमें से मैं कुछ न पा सका।
जो असीमित थी,
उसमें से सीपियों में बंद कविताएँ निकली।
ये कविताएँ मेरे कमरे में
गुलदस्तों की जगह सजी हैं।