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धधकती आग / महेन्द्र भटनागर

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गीत गाने के लिए मेरे विकल हैं प्राण !

क्षितिज-रेखा पर दिखाई दे रहे हैं
दग्ध उजड़े लोक के ही दाग़,
और चारों ओर धधकी विप्लवी
भीषण मचल कर नाशकारी आग,
दूर हो अभिशाप — प्रस्तुत सृष्टि का वरदान !

असह, देती हैं हिला, पीड़ा पुकारें,
क्रूर-उर-पाषण भी झकझोर,
आदमी का दर्प पागल बन, धुआँ —
ज्वालामुखी-सा फट रहा है घोर,
मिट गया है आज मानव का सकल अभिमान !

देखता हूँ, हो रहा है घोर बर्बर
नृत्य-तांडव, हिंस्र निर्मम ध्वंस,
देखता हूँ, हो रहे हैं राख ज़िंदा
तड़प मानव तोड़कर दम, ध्वंस,
दीखते दीवार पर चित्रित करुण आख्यान !