तुम काव्य गंगा बनकर
मेरे हृदय में बहते रहे कृष्ण!
मुझे रसप्लावित करते रहे
मेरी सांसों में बांसुरी
के सुरों से घुलते रहे
मेरे जीवन की माधुरी में छलकते रहे
सोलह कलाओं से सम्पन्न
तुम मेरे इष्टदेव
मुझे सोलह कलाओं
के रंग दिखाते रहे
और मैं झूम-झूम कर गाती रही
तुम्हारे प्रेम के गीत
और विभोर होकर नाचती रही
क्योंकि तुम नचाते रहे।