भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे रूप में तुम ही होगे / उर्मिल सत्यभूषण

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:26, 18 अक्टूबर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उर्मिल सत्यभूषण |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे कृष्ण! द्रोपदी का एक दाना मुझे
दे दो और दे दो अपनी सी एक दाने
से तृष्ट होने वाली संतुष्टि! मैं
जग में बांट दूँगी उसे। क्षुघार्त
मानवता की संतुष्टि का अन्न दूँगी
उसके लहुलुहान भागते पैरों
को राहत की सांसे दूँगी
और अपनी सांसे सृष्टि-समाज और
सृजन को समर्पित कर दूँगी
मान-अपमान से परे होकर
जीवन को संवारने के प्रयत्न
करती रहूँगी
हजार-हजार साल तक पीड़ा की
नदी में तैरती रहूँगी।
आवागमन के चक्कर में पड़ी रहूँगी
अग्नि स्नान करती रहूँगी
और दूसरों की पीड़ायें हरती रहूँगी
किन्तु वह मैं नहीं
मेरे रूप में तुम ही
तो होंगे मेरे प्रभु।