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मेरे रूप में तुम ही होगे / उर्मिल सत्यभूषण

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हे कृष्ण! द्रोपदी का एक दाना मुझे
दे दो और दे दो अपनी सी एक दाने
से तृष्ट होने वाली संतुष्टि! मैं
जग में बांट दूँगी उसे। क्षुघार्त
मानवता की संतुष्टि का अन्न दूँगी
उसके लहुलुहान भागते पैरों
को राहत की सांसे दूँगी
और अपनी सांसे सृष्टि-समाज और
सृजन को समर्पित कर दूँगी
मान-अपमान से परे होकर
जीवन को संवारने के प्रयत्न
करती रहूँगी
हजार-हजार साल तक पीड़ा की
नदी में तैरती रहूँगी।
आवागमन के चक्कर में पड़ी रहूँगी
अग्नि स्नान करती रहूँगी
और दूसरों की पीड़ायें हरती रहूँगी
किन्तु वह मैं नहीं
मेरे रूप में तुम ही
तो होंगे मेरे प्रभु।