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कुड़ी होने की सजा / उर्मिल सत्यभूषण

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कुड़ी होने की सजा
दादा दे तो समझ में आता है
पर दादी क्यों देती है
जो खुद भी कुड़ी जात है
पापा दें, तो कोई बात नहीं
पर माँ दे तो बहुत तकलीफ
होती है
मेरी हम शक्ल! मेरी हमजात!!
ओ मेरी दादी! ओ मेरी माँ!!
ओ पकी उम्र की कुड़ियों!
जब वसंत तुम्हारे जिस्मों पर
तुम्हारे होठों पर, तुम्हारे बालों पर
तुम्हारी चालों पर उतरा होगा
तो तुम भी इतराई होगी
गदराते जिस्मों की खुशबू से
खुद भी महकी होगी, बगिया महकाई
होगी
कुड़ी होने की सजा भोगी होगी
मार खाई होगी। गर्दन झुकाई होगी
पर कटवाये होंगे
सपनों के आसमान टूटे होंगे
ज़मीन पर आईं होगी
पर सुनो और बुढ़ाती कुड़ियों!
यह कुड़ी
दुनिया को रचने वाली
पालन-पोषण करने वाली
भविष्य की माँ
तुम्हारे दर्दों की, तुम्हारी पीड़ाओं की
तुम्हारी यातनाओं और तुम्हारे शोषण की
सारी अग्नि समेट कर
यह ऐलान करती है
कि यह कुड़ी पंख न कटने देगी
भरेगी उड़ान।
छू लेगी आसमान
आज़ाद हवाओं को
विशाल खलाओं को
अपने वजूद में भरकर
लौटेगी ज़मीन पर
जियेगी अपनी शर्तों पर
अपने छन्दों पर
एक सम्मानित जीवन
भरपूर सुन्दर जीवन
लड़की होने की सजा नहीं
सम्मान पायेगी
और खुले गले से
खुलकर गायेगी
जिं़दगी के गीत।