हे मेरे प्यार में विह्वल
रहने वाले मनु!
तुम अनुरक्ति से विरक्ति
की ओर कब मुड़ गये
पता ही न चला
तुम्हारी छटपटाती उर्मियाँ
आ-आ कर मेरे अंक लगती
मेरे कूल पर सर पटकती
मुझमें विलीन होती रहीं
मेरे अस्तित्व को प्रमुदित कर
प्रकम्पित देह के फूल को
विकसित करते रहे तुम
खिली-खिली सी अंकुरित
हो उठी थी मैं
पल्लवित, पुष्पित
स्वर्ग के झूले में बैठ
वात्सल्य से विभोर
इठलाती थी अपने स्वर्ग सुख पर
किलकारियों और क्रन्दन से
गुंजित नवजीवन के पालन-पोषण
के नित नये आयोजन से
हैरान परेशान तुम
मुझको बंटा देख स्तम्भित से
मुंह मोड़ कर चल दिये
किस ओर! किस नवल प्रत्याशा में?
किसके भरोसे तुम गये मुझे छोड़!
लौट आओ मनु! लौट आओगे?
अनुत्तरित न रहेगी आर्त्त यह पुकार
जान जाओगे यह तुम, कि अक्षुण्ण मेरा प्यार!