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जीवन-दीप / महेन्द्र भटनागर

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अँधेरा है, अँधेरा है !
कि चारों ओर जीवन में
निविड़ तम का बसेरा है !
कि जिसने सब दिशाओं को
कुटिल भय पाश में भर
मौन घेरा है !
दिखाई कुछ नहीं देता
पलक की नाव मेरी लय
सघन-तम-सिंन्धु में !
देखा क्षितिज में दूर तक
पर, कुछ न सूझा
और भी गहरा उमड़कर तम
धुआँ-सा बन
कड़कते बादलों-सा छा
हृदय में कर उठा चीत्कार —
छल, रंगीन यह संसार !
धोखा है कि धोखा है !
सनातन
प्राण का अंतिम बसेरा ही
अँधेरा है !
विवश हो
काँपता मन, काँपता जीवन
जटिल हो बढ़ रही उलझन,
अँधेरा है, अँधेरा है !

पर, बह रहा
अविराम जीवन-स्रोत
अनदेखा किये तम
सामने,
जिसमें छिपी हैं
सर्वभक्षक यातनाएँ घोर
चारों ओर !
संशय है; अधूरा ज्ञान है।

पर, बह रहा
जीवन सबल झरना;
कि किंचित सोचना रुकना
बुरा होगा यहाँ वरना,
निमिष भर को थकित होकर
अँधेरे से चकित होकर
अशिव के सामने झुकना
बुरा होगा यहाँ वरना !
ज़रा भी ठोकरों से हिल
अवनि पर एक पल झुकना
गिरा देगा,
तुम्हारी बाहुओं का बल
अथक संबल
शिथिल होकर
भयावह काल के सम्मुख
अँधेरे में सदा को
लुप्त हो मिट जाएगा।
मात्र जीवन-शक्ति
अंतर-चेतना से
रह सकेगा मौन
दृढ़ निष्कंप
फैले इस अँधेरे में,
तुम्हारी साधना का दीप,
वांछित कामना का दीप !