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रिश्तों की लाशें / उर्मिल सत्यभूषण
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गांठ तो पक्की थी
धागे ही कच्चे थे
सो टूट गये
नेह के वे सारे
सम्बोधन ही छूट गये।
हम कायर हैं
दब्बू हैं-
संस्कारों के पिट्ठू हैं
हंसते हैं रोते हैं
रिश्तों की लाशों को
रो-रोकर ढोते हैं।